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ग़ज़ल
विसाल तो है कहाँ मयस्सर मगर ख़याल-ए-विसाल ही में
मज़े उड़ाते हवस निकलती जो साथ अंदाज़-ए-रम न होता
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
वो रह-ओ-रस्म न वो रब्त-ए-निहाँ बाक़ी है
फिर भी इस दिल को मोहब्बत का गुमाँ बाक़ी है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बे-ख़बर है अपने अंदाज़-ए-दिल-आराई से हुस्न
क्यों न उस को इश्क़ से भी बढ़ के दीवाना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
अब हसीं चेहरों पे मिलती है तसन्नो की नक़ाब
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अंदाज़-ओ-अदा कुछ भी नहीं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
कौन जाने ये मिरे दिल के सिवा ऐ 'मुज़्तर'
उस की इक जुम्बिश-ए-लब सिलसिला-ए-राज़ भी है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
मसअला ये भी ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ आसाँ हो गया
ज़ीस्त को अंदाज़ा-ए-ग़म-हा-ए-दौराँ हो गया
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
फिर कोई ख़लिश नज़्द-ए-राग-ए-जाँ तो नहीं है
फिर दिल में वही नश्तर-ए-मिज़्गाँ तो नहीं है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
क्या पिघलता जो रग-ओ-पै में था यख़-बस्ता लहू
वक़्त के जाम में था शोला-ए-तर ही कितना