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ग़ज़ल
ख़राब सदियों की बे-ख़्वाबियाँ थीं आँखों में
अब इन बे-अंत ख़लाओं में ख़्वाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
ईंट और पत्थर मिट्टी गारे के मज़बूत मकानों में
पक्की दीवारों के पीछे हर घर कच्चा लगता है
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
किसी 'ईद पर या बसंत पर वो मिलेगा 'उम्र के अंत पर
मैं ये सोचता हूँ कि ये भी कोई बहाना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
वही बे-ख़बरी वही जीवन का बे-अंत सफ़र और ऐसे में
कोई अपनी याद दिलाता है पर जाने कौन दिलाता है