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ग़ज़ल
लैलतुल-क़द्र है ऐ माह तिरा ख़त्त-ए-सियाह
सुब्ह यौम-उल-'अरफ़ा नूर-ए-दयार-ए-आरिज़
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
इक रात बख़्त सूँ मैं रिंदाँ का सात पाया
इरफ़ाँ के मुल्क-ए-दीं पर हक़ सूँ बरात पाया
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
जिस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ समझा था
वो तो शायद मेरे प्यासे होंटों की शैतानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया
सोज़-ए-जानाँ दिल में सोज़-ए-दीगराँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
फड़क उठ्ठा कोई तेरी अदाए मा-'अरफ़ना पर
तिरा रुत्बा रहा बढ़-चढ़ के सब नाज़-आफ़रीनों में