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ग़ज़ल
पच्छिम देस के फ़र्ज़ानों ने निस्फ़ जहाँ से शहर बसाए
इन में पीर बुज़ुर्ग अरस्तू बैठा रहता तन्हा तन्हा
ज्ञान चंद जैन
ग़ज़ल
अरस्तू-जाह वो फ़र्रुख़-नज़ाद-ए-अहल-ए-आलम है
कि जिस के फ़ज़्ल-ओ-बख़्शिश का जहाँ में है अलम बरपा
मह लक़ा चंदा
ग़ज़ल
जहाँ पर हों 'अरस्तू' और 'लुक़्माँ' ज़ीनत-ए-महफ़िल
वहाँ का सद्र-ए-महफ़िल कोई नादाँ हो नहीं सकता
निशात किशतवाडी
ग़ज़ल
माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझ को ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं