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ग़ज़ल
हमारी अर्ज़-ए-मतलब पर तिरा बेज़ार हो जाना
ज़रा सी बात पर आमादा-ए-पैकार हो जाना
हामिद हुसैन हामिद
ग़ज़ल
अर्ज़-ए-मतलब ने किया और भी कुछ ख़्वार मुझे
जब भी मिलते हैं सुना देते हैं दो-चार मुझे
आग़ा नगीनवी
ग़ज़ल
क्या क़ुसूर ऐ अर्ज़-ए-मतलब हसरत-ए-पुर-जोश का
चश्म-ए-हैराँ का गिला है या लब-ए-ख़ामोश का
उम्मीद अमेठवी
ग़ज़ल
अदा-ए-गअरज़-ए-मतलब में ग़ज़ब की कामयाबी है
अजब हुस्न-ए-तलब रखता है अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ मेरा
शहीर मछलीशहरी
ग़ज़ल
झुक गया सर अर्ज़-ए-मतलब पर बरा-ए-इख़्तिसार
हम ने चाहा था कि अफ़्साना-दर-अफ़्साना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
अगर वो गालियाँ देने पर आमादा हैं ख़ल्वत में
तो हम भी अर्ज़-ए-मतलब के लिए तय्यार बैठे हैं
अनवरी जहाँ बेगम हिजाब
ग़ज़ल
अकेला पा के उन को अर्ज़-ए-मतलब कर ही लेता हूँ
न चाहूँ तो भी इज़्हार-ए-तमन्ना हो ही जाता है