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ग़ज़ल
इक तरफ़ उड़ते अबाबील इक तरफ़ असहाब-ए-फ़ील
अब के अपने काबा-ए-जाँ का मुक़द्दर देखना
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
जो सफ़-आरा रहे बरसों अरब के कोहसारों पर
उन असहाब-ए-सफ़ा का मुझ को लश्कर याद आता है
सय्यद ज़फ़र काशीपुरी
ग़ज़ल
थोड़ी सी वज़' ओढ़ ली और वज़'-दार हो गए
अस्हाब-ए-इज़-ओ-जाह में हम भी शुमार हो गए
एहतिशामुल हक़ सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
न कुछ भी कर सके असहाब-ए-फ़ील थे तो बहुत
जो कुछ हुआ तिरे दर्वेश-ए-बे-नवा से हुआ
ख़ालिद हसन क़ादिरी
ग़ज़ल
असहाब-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न ढूँडो तो दौर-ए-नौ में कितने कम
दावा-ए-फ़न में यूँ देखो तो बातूनी फ़न-कार बहुत
हैरत बिन वाहिद
ग़ज़ल
फिर वही क़हर वही फ़ित्ना-ए-दज्जाल के दिन
फिर वही क़िस्सा-ए-अस्हाब-ए-कहफ़ खींचता है
क़मर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
आज भी इल्म-ओ-हुनर की नहीं कोई वक़अत
अब भी ना-क़द्री-ए-असहाब-ए-हुनर है कि जो थी