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ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ की रही या ग़म-ए-जानाँ की रही
अल-ग़रज़ छेड़ रही मंज़िल-ए-नाकाम के साथ
मंज़िल लोहाठेरी
ग़ज़ल
सुलाये रक्खा हमें भी फ़रेब-ए-मंज़िल ने
चले थे हम भी किसी हम-रकाब-ए-ख़्वाब के साथ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
हम राह-रव-ए-मंज़िल दुश्वार रहे हैं
हर तरह मुसीबत में गिरफ़्तार रहे हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
छोड़ कर सब कुछ चला था जानिब-ए-मंज़िल जुनूँ
क्यों ख़िरद ने राह में रिश्तों के पत्थर रख दिए
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
मैं कि ख़ुद राह में भूल आई हूँ असबाब-ए-सफ़र
कोई मंज़िल का पता पूछ रहा है मुझ से