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ग़ज़ल
अँधेरी रात तूफ़ानी हवा टूटी हुई कश्ती
यही अस्बाब क्या कम थे कि इस पर नाख़ुदा तुम हो
सरशार सैलानी
ग़ज़ल
सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है
ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हटता नहीं तसव्वुर-ए-अस्बाब-ओ-मुल्क-ओ-माल
कानों में बज रही है वो शहना-ए-लखनऊ
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
वो अपने हुस्न की मस्ती से हैं मजबूर-ए-पैदाई
मिरी आँखों की बीनाई में हैं असबाब-ए-मस्तूरी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़ुश-बाशी-ओ-तंज़िया-ओ-तक़द्दुस थे मुझे 'मीर'
अस्बाब पड़े यूँ कि कई रोज़ से याँ हूँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मेरे ग़म-ख़ाने की क़िस्मत जब रक़म होने लगी
लिख दिया मिन-जुमला-ए-असबाब-ए-वीरानी मुझे