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ग़ज़ल
पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था
जौन एलिया
ग़ज़ल
कुछ हाल के अंधे साथी थे कुछ माज़ी के अय्यार सजन
अहबाब की चाहत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
कौन दे आवाज़ ख़ाली रात के अंधे कुएँ में
कौन उतरे ख़्वाब से महरूम बिस्तर में अकेला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
कर दिया बिल्कुल अपने जैसा मुझ को अंधे क्यूपिड ने
अपनी शोहरत जान रहा हूँ मैं अपनी रुस्वाई को