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ग़ज़ल
मज़ा बे-होशी-ए-उल्फ़त का होशयारों से मत पूछो
अज़ीज़ाँ ख़्वाब की लज़्ज़त को बे-दारों से मत पूछो
मीर हसन
ग़ज़ल
दार पर चढ़ कर लगाएँ नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम
सब हमें बाहोश समझें चाहे दीवाना कहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ऐ शैख़-ए-हरम ए'जाज़ है ये पुर-कैफ़ निगाह-ए-साक़ी का
बा-होश तो गिरते रहते हैं बेहोश सँभलते रहते हैं
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
ऐ शैख़-ए-हरम ए'जाज़ है ये पुर-कैफ़ निगाह-ए-साक़ी का
बा-होश तो गिरते रहते हैं बेहोश सँभलते रहते हैं
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
उन्हें ब-ईं ख़िरद-ओ-होश पा सका न कभी
मता-ए-होश-ओ-ख़िरद खो के पा रहा हूँ मैं
मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी
ग़ज़ल
मैं जहान-ए-होश-ओ-इरफ़ाँ ब-लिबास-ए-काफ़िराना
ब-हिजाब-ए-पारसाई तू हमा शराब-ख़ाना
फ़ारूक़ बाँसपारी
ग़ज़ल
मैं जहान-ए-होश-ओ-इरफ़ाँ ब-लिबास-ए-काफ़िराना
ब-हिजाब-ए-पारसाई तू हमा-शराब-ख़ाना