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ग़ज़ल
ख़ाक करती है ब-रंग-ए-चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम रक़्स
हर दो-आलम को तिरा रखता है बे-आराम रक़्स
बयान मेरठी
ग़ज़ल
ब-रंग-ए-निकहत-ए-गुल है चमन में आशियाँ अपना
किसी के राज़दाँ हम हैं न कोई राज़-दाँ अपना
क़ैसर अमरावतवी
ग़ज़ल
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हमराह-ए-सबा टुक सैर करते फिर हवा होते
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
दिल-ए-पज़-मुर्दा को हम-रंग-ए-अब्र-ओ-बाद कर देगा
वो जब भी आएगा इस शहर को बर्बाद कर देगा