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ग़ज़ल
रख के जिस को शैख़ ने पी थी कभी नाम-ए-ख़ुदा
बा'इस-ए-बरकत वही दस्तार मय-ख़ाने में है
तल्हा रिज़वी बर्क़
ग़ज़ल
कुछ ऐसी बात हो जो मूजिब-ए-तस्कीन-ए-ख़ातिर हो
वो क्या इक़रार है जो बाइस-ए-आज़ार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
रौज़ा-ए-अक़्दस पे आकर क्यों न ठहरें क़ाफ़िले
बाइ'स-ए-तस्कीन-ए-दिल है आस्ताना आप का
शकील इबन-ए-शरफ़
ग़ज़ल
जहाँ हरकत नहीं होती वहाँ बरकत नहीं होती
'सुरूर' अब वादी-ए-गुल में क़याम अच्छा नहीं लगता
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
लिल्लाहिल-हम्द कि मुद्दत में तुम ऐ नूर-ए-निगाह
बाइस-ए-रौशनी-ए-दीदा-ए-ख़ूँ-बार हुए
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
न करता काश नाला मुझ को क्या मालूम था हमदम
कि होगा बाइस-ए-अफ़्ज़ाइश-ए-दर्द-ए-दरूँ वो भी
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो जो था बाइ'स-ए-तस्कीन-ए-ग़म-ए-हिज्र कभी
अब वही दीदा-ए-तर है कि नहीं देख तो लूँ
अब्दुल हमीद होश
ग़ज़ल
चारागर ख़तरा-ए-जाँ कहते थे जिस को 'बासिर'
वही ग़म बाइस-ए-आराम-ए-रग-ए-जाँ निकला
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
वो गुल जो बा’इस-ए-सद-ज़ीनत-ए-गुलिस्ताँ हैं
उन्हीं पे ख़ारों का पहरा दिखाई देता है