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ग़ज़ल
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
कभी जादा-ए-तलब से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता
तिरी आरज़ू ने हँस कर वहीं डाल दी हैं बाँहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
गले में डाल कर बाँहें वो लब से लब मिला देना
फिर अपने हाथ से साग़र पिलाना याद आता है
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
कुछ गुल ही से नहीं है रूह-ए-नुमू को रग़बत
गर्दन में ख़ार की भी डाले हुए है बाँहें
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें
जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
न छाँव करने को है वो आँचल न चैन लेने को हैं वो बाँहें
मुसाफ़िरों के क़रीब आ कर हर इक बसेरा पलट गया है
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
आलाम-ए-ज़माना से छूटें तो तुझे चाहें
मसरूफ़-ए-मशक़्क़त हैं हसरत से भरी बाँहें