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ग़ज़ल
छोड़ कर सब लहलहाते खेत पागल-पन में हम
शहर आए और यहाँ बनियों के नौकर हो गए
राजीव रियाज़ प्रतापगढ़ी
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
कभी जो आवारा-ए-जुनूँ थे वो बस्तियों में फिर आ बसेंगे
बरहना-पाई वही रहेगी मगर नया ख़ार-ज़ार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब' तो ऐ अहल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था
अपनी कच्ची बस्तियों को बे-निशाँ होना ही था