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ग़ज़ल
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
है अपनी किश्त-ए-वीराँ सरसब्ज़ इस यक़ीं से
आएँगे इस तरफ़ भी इक रोज़ अब्र-ओ-बाराँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुकम्मल किस तरह होगा तमाशा बर्क़-ओ-बाराँ का
तिरा हँसना ज़रूरी है मिरा रोना ज़रूरी है
शोएब बिन अज़ीज़
ग़ज़ल
मिरे बाहर फ़सीलें थीं गुबार-ए-ख़ाक-ओ-बाराँ की
मिली मुझ को तिरे ग़म की ख़बर आहिस्ता आहिस्ता
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
लिखी यारों की बद-मस्ती ने मयख़ाने की पामाली
हुइ क़तरा-फ़िशानी-हा-ए-मय-बारान-ए-संग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
मैं फ़क़त ख़ुश्बू से उस की ताज़ा-दम सा हो गया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
चमकना बर्क़ का लाज़िम पड़ा है अब्र-ए-बाराँ में
तसव्वुर चाहिए रोने में उस के रू-ए-ख़ंदाँ का