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ग़ज़ल
क़ैद में है तिरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हाँ कुछ इक रंज-ए-गिराँ-बारी-ए-ज़ंजीर भी था
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ 'नूर'
मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफ़ा है मुझ में