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ग़ज़ल
वो जो हैं लज़्ज़त-ए-तफ़्हीम-ए-सुख़न से वाक़िफ़
शे'र सुनते हैं वही लोग मुकर्रर मुझ से
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
मिरी सरिश्त-ए-'सुख़न' में हैं कुछ नए उस्लूब
नई ग़ज़ल ने मुझे भी ख़ुश-आमदीद कहा
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
बाज़ार-ए-सुख़न गर्म किया उस की सिफ़त सूँ
मुझ शेर का हैहात ख़रीदार न आया
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
बहार-ए-लाला-ओ-गुल के क़सीदे ख़त्म हुए
ख़िज़ाँ का मर्सिया पढ़ता है हर शजर अब के
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
उफ़ुक़ का चेहरा 'सुख़न' इस कदर उदास है क्यूँ
शफ़क़ के रंग में ये सुर्ख़ी-ए-लहू कैसी
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
किसी के नक़्श-ए-क़दम की थी जुस्तुजू वर्ना
मैं इस तरह तो 'सुख़न' दर-ब-दर नहीं होता
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
हुसूल-ए-अम्न-ओ-मुहब्बत की चाशनी के लिए
मिज़ाज-ए-तल्ख़ी-ए-दौराँ 'सुख़न' गवारा कर
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
अभी है दूर हर इक महफ़िल-ए-तरब से 'सुख़न'
दिल-ओ-नज़र में अभी इज़्तिराब इतने हैं
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
ख़ुलूस-ओ-प्यार आज भी वही है ख़ानदान में
बस इतना है 'सुख़न' कि जाँ-निसारियाँ नहीं रहीं