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ग़ज़ल
ये माना शीशा-ए-दिल रौनक़-ए-बाज़ार-ए-उल्फ़त है
मगर जब टूट जाता है तो क़ीमत और होती है
वामिक़ जौनपुरी
ग़ज़ल
सजे हैं हर तरफ़ बाज़ार ऐसा क्यूँ नहीं होता
बिके अब तो ग़म-ए-लाचार ऐसा क्यूँ नहीं होता
शादाब उल्फ़त
ग़ज़ल
परस्तार-ए-वफ़ा कोई नहीं बाज़ार-ए-उल्फ़त में
ख़रीदारी नहीं जिस की वो सौदा हो गए हम तुम