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ग़ज़ल
किसी के जाल में आ कर मैं अपना दिल गँवा बैठा
मुझे था इश्क़ क़ातिल से मैं अपना सर कटा बैठा
बाबर रहमान शाह
ग़ज़ल
ठहरने ही नहीं देती हैं घर में शहर की ख़बरें
ज़रा बाहर निकलते हैं तो जाँ ख़तरे में रहती है
रहमान मुसव्विर
ग़ज़ल
शाह नसीर
ग़ज़ल
बहार आई है अब तो ऐ जुनूँ हो सिलसिला जुम्बाँ
कि हम मुद्दत से क़स्द-ए-रफ़्तन-ए-वीराना रखते हैं
शाह नसीर
ग़ज़ल
आज़ाद रहे नाकाम जिए पाबंद भला क्या शाद रहें
हो सहन-ए-चमन या कुंज-ए-क़फ़स हम को तो कहीं आराम नहीं