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ग़ज़ल
वो खड़ा है एक बाब-ए-इल्म की दहलीज़ पर
मैं ये कहता हूँ उसे इस ख़ौफ़ में दाख़िल न हो
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
मैं किताब-ए-दिल में अपना हाल-ए-ग़म लिखता रहा
हर वरक़ इक बाब-ए-तारीख़-ए-जहाँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
सूफ़ी ये सहव महव हुए सद्द-ए-बाब-ए-उंस
क्या इम्बिसात कार-गह-ए-हसत-ओ-बूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
बक़ा-तलब थी ज़िंदगी शिफ़ा-तलब था ज़ख़्म-ए-दिल
फ़ना मगर लिखी गई है बाब-ए-इंदिमाल में
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
न सही बाब-ए-क़फ़स रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो खुला