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ग़ज़ल
मिल ऐसे मुझ से गुमान हो ला-तअल्लुक़ी का
मैं दोस्ती के लिए बहुत बद-शगुन रहा हूँ
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
ज़ियाँ जिगर का सही ये जो शग़्ल-ए-बादा है
दिल-ओ-नज़र के लिए इस में कुछ इफ़ादा है
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
फिर फ़ज़ा में रच गई है ज़ख़्म-ए-ताज़ा की महक
फिर मिरी पलकों को 'शाहीं-बद्र' गोयाई मिली
शाहीन बद्र
ग़ज़ल
चश्म-ए-हैरत से न यूँ देखा करें 'शाहीन-बद्र'
मौसम-ए-इख़्लास की ठंडी हवा है मुख़्तलिफ़
शाहीन बद्र
ग़ज़ल
ग़म-ए-फ़िराक़ नहीं मुज़्दा-ए-विसाल के बाद
शुगून-ए-बद का असर क्या हो नेक-फ़ाल के बा'द