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ग़ज़ल
किसी बदमस्त को राज़-आश्ना सब का समझते हैं
निगाह-ए-यार तुझ को क्या बताएँ क्या समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जिसे देखो वही बदमस्त ही मग़रूर है हमदम
कोई बंदा नहीं दुनिया में किस किस को ख़ुदा समझो
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब
क्यूँ हाथ में बदमस्त के बंदूक़ भरी दी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
कोई बदमस्त को देता है साक़ी भर के पैमाना
तिरा क्या जाएगा मुझ पर अबस इल्ज़ाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बस-कि हैं बद-मस्त-ए-ब-शिकन ब-शिकन-ए-मय-ख़ाना हम
मू-ए-शीशा को समझते हैं ख़त-ए-पैमाना हम
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तेरी जफ़ा न हो तो है सब दुश्मनों से अम्न
बदमस्त ग़ैर महव दिल और बख़्त ख़्वाब में
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
करते हैं चोट आख़िर ये आहुआन-ए-बदमस्त
आँखों से उस की ऐ दिल टुक एहतिराज़ करना
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
आया है वो बदमस्त लिए हाथ में शमशीर
मज्लिस से शिताबी कहीं काफ़ूर हो ऐ शैख़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
अफ़्सून-ए-निगह से तिरी ऐ साक़ी-ए-बद-मस्त
शीशे में हुई मिस्ल-ए-परी अपनी नज़र-बंद