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ग़ज़ल
न बगूले हैं न काँटे हैं न दीवाने हैं
अब तो सहरा का फ़क़त नाम है सहरा क्या है
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
क़स्र-ए-तन को यूँ ही बनवा ये बगूले 'नासिख़'
ख़ूब ही नक़्शा-ए-तामीर लिए फिरते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
दश्त में आज भी उठते हैं बगूले क्या क्या
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
गर्द उड़ाते ज़र्द बगूले दर पर दस्तक देते थे
और ख़स्ता-दीवारों की पल भर में शक्ल बदलती थी
हम्माद नियाज़ी
ग़ज़ल
बगूले की तरह किस किस ख़ुशी से ख़ाक उड़ाता हूँ
तलाश-ए-गंज में जो सामने वीराना आता है
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
क़ैद को तोड़ के निकला जब मैं उठ के बगूले साथ हुए
दश्त-ए-अदम तक जंगल जंगल भाग चला वीराना भी