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ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
वहीं चश्म-ए-हूर फड़क गई अभी पी न थी कि बहक गई
कभी यक-ब-यक जो छलक गई किसी रिंद-ए-मस्त के जाम से
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
न ख़िज़ाँ में है कोई तीरगी न बहार में कोई रौशनी
ये नज़र नज़र के चराग़ हैं कहीं बुझ गए कहीं जल गए