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ग़ज़ल
जब से बहिश्त-ए-कूचा-ए-जानाँ से हैं जुदा
गिरते हैं उठ के हम क़द-ए-आदम तमाम रात
मुज़फ़्फ़र अली असीर
ग़ज़ल
दामन-ए-ख़ाक पे ये ख़ून के छींटे कब तक
इन्हीं छींटों को बहिश्त-ए-गुल-ओ-रैहाँ कर दें
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
घूम जाती है नज़र में इक बहिश्त-ए-कैफ़-ओ-रंग
झूम जाता है मिरा दिल सुन के मयख़ाने का नाम
नासिर अंसारी
ग़ज़ल
ज़बान-ए-हाल सीं कहता है उन का नक़्श-ए-क़दम
बहिश्त-ए-दीदा-ओ-दिल ख़ुश-क़दों की गलियाँ हैं