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ग़ज़ल
'नज़ीर' ऐसा जो चंचल दिलरुबा बहरूपिया होवे
तमाशा है फिर ऐसे शोख़ से सौदे का पट जाना
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
क्या करें 'जावेद' इस बहरूपियों के दौर में
गुल को गुल काँटे को काँटा मानना मुश्किल हुआ