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ग़ज़ल
मचल रहा था दिल बहुत सो दिल की बात मान ली
समझ रहा है ना-समझ की दाव उस का चल गया
अंबरीन हसीब अंबर
ग़ज़ल
जुज़ मिरे छीन गया है दर-ओ-दीवार-ओ-फ़सील
'सोज़' इस बार तो कम-ज़र्फ़ी-ए-तूफ़ाँ है बहुत