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ग़ज़ल
हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है
अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
सँवारे जा रहे हैं हम उलझती जाती हैं ज़ुल्फ़ें
तुम अपने ज़िम्मा लो अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
नूह नारवी
ग़ज़ल
बखेड़ा याँ का याँ पर छोड़ 'अफ़रीदी' 'अदम आख़िर
न ये दर्द-ओ-बला रंज-ओ-अलम आह-ओ-फ़ुग़ाँ ले जा
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
उलझाओ पे उलझाओ हैं उस हस्ती की बस्ती में
एक तवील बखेड़ा है ये एक अजीब कहानी है
फैज़ तबस्सुम तोंसवी
ग़ज़ल
होवेगा न ये हस्ती-ए-फ़ानी का बखेड़ा
इक रोज़ ये होगा कि तिरी ज़ात है और तू
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
जिस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हम ने नहीं क्या वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया
जौन एलिया
ग़ज़ल
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
ख़ुद-ब-ख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
बस-कि रोका मैं ने और सीने में उभरीं पै-ब-पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरेबाँ हो गईं