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ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ये फ़न्न-ए-इश्क़ है आवे उसे तीनत में जिस की हो
तू ज़ाहिद-ए-पीर-ए-ना-बालिग़ है बे तह तुझ को क्या आवे
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
मैं किन मजबूरियों का अब करूँ मातम बता 'बालिग़'
जो पाया बे-ख़ुदी में वो गँवाया आश्ना हो कर
इरफ़ान अहमद मीर
ग़ज़ल
दुनिया को अपना कर हम ने ख़ुद को फिर बे-मोल किया
कौन गिनाए तुम को 'बालिग़' किस किस के तुम होले हो
इरफ़ान अहमद मीर
ग़ज़ल
मिरे बाग़-ए-दिल पे आख़िर ये बहार भी सितम है
जो गुलाब हम ने बोए वो हैं ख़ार-दार अब तक
इरफ़ान अहमद मीर
ग़ज़ल
किस क़दर ज़ी-फ़हम हैं सब किस क़दर बालिग़-नज़र
एक जुगनू को मह-ए-कामिल समझ बैठे हैं लोग
ज़फ़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने
इस जिंस को बाज़ार में पूछा न किसी ने