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ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ देखी उस की जिन क़ौमों ने वो काफ़िर बनीं
रुख़ नज़र आया जिन्हें वो सब मुसलमाँ हो गईं
इस्माइल मेरठी
ग़ज़ल
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
उड़ा के बंद जो की दस्त-ए-नाज़ से खिड़की
बनाईं ऐसे मिरे ख़त की तितलियाँ उस ने
दिलनवाज़ ख़ाँ दिलनवाज़
ग़ज़ल
ख़ुद तो रंगा-रंग तस्वीरें बनाईं आप ने
मेरे सर धरते हैं फिर ये आप ही इल्ज़ाम क्या
नाज़िश सह्सहरामी
ग़ज़ल
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ