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ग़ज़ल
रुकना हो या चलना हो कोई फ़िक्र नहीं बंजारे को
बंजारन नए छप्पर छाए कूच में पूत सहारा दे
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
कौन बढ़ाए प्यार की पेंगें उस नट-खट बंजारन से
फिरने को तो नगरी नगरी फिरती है हरजाई धूप
नो बहार साबिर
ग़ज़ल
जहाँ ख़ाक बिछौना रात मिले मुझे चाँद की सूरत साथ मिले
वही दुखियारन वही बंजारन वही रूप-मति वही भाग-भरी
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
अब हुस्न का रुत्बा 'आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है
चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
एक निगाह का सन्नाटा है इक आवाज़ का बंजर-पन
मैं कितना तन्हा बैठा हूँ क़ुर्बत के वीराने में
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
इस मौसम-ए-गुल ही से बहके नहीं दीवाने
साथ अब्र-ए-बहाराँ के वो ज़ुल्फ़ भी लहराई
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तिरी दीद से सिवा है तिरे शौक़ में बहाराँ
वो चमन जहाँ गिरी है तिरे गेसुओं की शबनम