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ग़ज़ल
इज्ज़ से और बढ़ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वो करे इलाज-ए-दोस्त जिस की समझ में आ सके
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
क़ाबिल अजमेरी
ग़ज़ल
बर्फ़ीली रुत की तेज़ हवा क्यूँ झील में कंकर फेंक गई
इक आँख की नींद हराम हुई इक चाँद का अक्स ख़राब हुआ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
यहाँ वाबस्तगी वाँ बरहमी क्या जानिए क्यूँ है
न हम अपनी नज़र समझे न हम उन की अदा समझे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
सुकूँ थोड़ा सा पाया धूप के ठंडे मकानों में
बहुत जलने लगा था जिस्म बर्फ़ीली चटानों में
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
हो गया हूँ क़त्ल बे-रहमी से उन के सामने
हैफ़ जिन लोगों को अपना पासबाँ समझा था मैं
चन्द्रभान ख़याल
ग़ज़ल
ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम्अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते