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ग़ज़ल
कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ऐ मिरे माह-रू तिरी चश्म-ए-सितारा-साँ के बाद
चाँद की दीद क्या करें रूयत-ए-कहकशाँ के बाद
साइमा ज़ैदी
ग़ज़ल
है बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-जाँ सोज़-ए-निहाँ हमारा
सरगर्म-ए-जल्वा-ए-ग़म हुस्न-ए-बयाँ हमारा