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ग़ज़ल
बिस्तर मिरा है ख़ार-ए-मुग़ीलाँ बसान-ए-क़ैस
लैला की है तुझे सफ़-ए-मिज़्गान की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मंज़िल से अब दूर निकल आए हैं 'क़ैस' तो ख़ुश हैं
हम-साए के कुत्ते का डर पीछे छोड़ आए हैं
सईद क़ैस
ग़ज़ल
क़ैस रामपुरी
ग़ज़ल
ज़बान-ए-'क़ैस' पे हर वक़्त तेरी बातें हैं
ज़बान-ए-क़ैस जो सीखूँ तो तुझ से बात करूँ
राज कुमार क़ैस
ग़ज़ल
सुनो 'शहज़ाद-क़ैस' आख़िर सभी कुछ मिटने वाला है
मगर इक ज़ात जो मुश्क-ए-मोहब्बत से मोअ'त्तर है
शहज़ाद क़ैस
ग़ज़ल
जाने तू क्या ढूँढ रहा है बस्ती में वीराने में
लैला तो ऐ क़ैस मिलेगी दिल के दौलत-ख़ाने में