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ग़ज़ल
यही कहा था कि ख़स्ता-ज़बाँ में बात न कर
अब इतनी बात पे तर्क-ए-त'अल्लुक़ात न कर
मुकर्रम हुसैन आवान ज़मज़म
ग़ज़ल
बस्ता-ए-इंतिशार हैं तालिब-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार हैं
उस के सियाहकार हैं रंज-तलब बला-तलब