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ग़ज़ल
शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे भी बे-हुरमत थे
हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
कभी मस्जिद की बे-हुरमत कभी अपमान मंदिर का
अमीर-ए-शहर के घर से कई धारे निकलते हैं
वसीम फ़रहत अलीग
ग़ज़ल
रहे हैं वहशत-ए-ज़िंदाँ में सर-ब-कफ़ रक़्साँ
हमीं जो हुर्मत-ए-दार-ओ-रसन बढ़ा भी चुके
शोएब बुख़ारी
ग़ज़ल
मैं बे-ज़बान नहीं हूँ ब-पास-ए-हुरमत-ए-हर्फ़
गड़ा हुआ कोई ख़ंजर मिरी ज़बान में है
शबाना ज़ैदी शबीन
ग़ज़ल
मुफ़लिसी ने सर पे इक सादा ज़रूरत ओढ़ ली
नक़्द-ए-हुरमत बेच कर बदले में ग़ुर्बत ओढ़ ली
ग़ुलाम मुस्तफ़ा दाइम
ग़ज़ल
जो कुछ कि तुम सीं मुझे बोलना था बोल चुका
बयान-ए-इश्क़ के तूमार कूँ मैं खोल चुका