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ग़ज़ल
तिरी महफ़िल से उठ कर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री
मुख़ालिफ़ इक जहाँ था जाने बेचारों पे क्या गुज़री
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
थोड़ी सी इन्कम की ख़ातिर बे-चारों को मार दिया
चंद डाक्टरों की हड़तालों ने बीमारों को मार दिया
खालिद इरफ़ान
ग़ज़ल
मय-ख़ाने में और तो क्या था हम-ज़ख्मों की महफ़िल थी
बेचारों से शुरूअ हुई थी ख़त्म हुई बेचारों तक
प्रबुद्ध सौरभ
ग़ज़ल
कूचे से निकलवाते हो अबस हम ऐसे वतन-आवारों को
रहने दो पड़े हैं एक तरफ़ दुख देते हो क्यूँ बे-चारों को
ज़िया अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बशीर दादा
ग़ज़ल
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं