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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बर्तन बर्तन चीख़ रही थी कौन समझता उस की बात
दिल का बर्तन ख़ाली था उस बर्तन बेचने वाली का
मुमताज़ गुर्मानी
ग़ज़ल
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो ग़म क्या था
यहाँ तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है
अली अहमद जलीली
ग़ज़ल
परियों के पास जाऊँ मैं क्यूँ दिल को बेचने
सौदा जो मोल लूँ ये मुझे दर्द-ए-सर नहीं