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ग़ज़ल
मीम भी यूँ ही है और नून के अंदर नुक़्ता
मुफ़लिसा बेग है ये वाव भी और छोटी हे
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हज़ार वा'दे किए हैं तुम ने कभी किसी को वफ़ा न करना
चलो उसी पर जो ग़ैर कह दें कहीं हमारा कहा न करना
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
अपने ही घर में यूँ है मुझे अपने घर की क़ैद
दरकार जैसे छत को हो दीवार-ओ-दर की क़ैद
महमूद बेग साज़
ग़ज़ल
कब है मंज़ूर कि यूँ जिंस-ए-दिल-ए-ज़ार बिके
पर ये वो शय है न बेचूँ भी तो सौ बार बिके
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
सुब्ह-दम उठ कर तिरा पहलू से जाना याद है
लोटना दिल का जिगर का फड़फड़ाना याद है