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ग़ज़ल
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मैं अक्सर सोचता हूँ 'वज्द' उन की मेहरबानी से
ये कुछ गुज़री है अपनों पर तो बेगानों पे क्या गुज़री
सिकंदर अली वज्द
ग़ज़ल
उल्फ़त की क़सम इस दुनिया में अब कोई किसी का भी न रहा
बेगानों का शिकवा क्या कीजे अपने अपनाना भूल गए
समिया नसीम
ग़ज़ल
काश कि जो पहचाना होता अपनों को बेगानों को
अश्कों से फिर थोड़े ही भरते अपने ही पैमानों को
मुंतज़िर फ़िरोज़ाबादी
ग़ज़ल
अपने बेगानों में मैं ने फ़र्क़ कुछ पाया नहीं
इस लिए लब पर कोई शिकवा कभी लाया नहीं