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ग़ज़ल
क्या हुजूम-ए-रंग 'अख़्तर' क्या फ़रोग-ए-बू-ए-गुल
मौसमों के ज़ाइक़े बूढ़े शजर में रह गए
अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल
जिस्म-ए-आदम पे है ज़रतार लिबास-ए-इख़्लास
आदमियत है मगर लाशा-ए-बे-गोर-ओ-कफ़न
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
लुत्फ़ से मतलब न कुछ मेरे सताने से ग़रज़
शोख़ियों से काम उन को मुस्कुराने से ग़रज़
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
आलम-ए-रंग-ओ-नग़्मा में कैफ़ बहुत सही मगर
बे-ख़ुद-ए-सैर-ए-काएनात अपनी तरफ़ भी इक नज़र
सय्यदा अख़्तर
ग़ज़ल
सुर्ख़-रू होने के क़ाबिल क्या हिना थी मैं न था
आप के क़दमों के नीचे उस को जा थी मैं न था
नवाब शाहजहाँ बेगम शाहजहाँ
ग़ज़ल
ये जो इक लड़की पे हैं तैनात पहरे-दार सौ
देखती हैं उस की आँखें भेड़िये ख़ूँ-ख़्वार सौ