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ग़ज़ल
अब पढ़े-लिक्खे भी 'साजिद' आ के बेकारी से तंग
शब को दीवारों पे चस्पाँ पोस्टर करने लगे
इक़बाल साजिद
ग़ज़ल
हर इक लीडर का दा'वा है तरक़्क़ी मुल्क ने कर ली
वतन में भूक बेकारी तो पहले से भी बढ़ कर है
कृष्ण प्रवेज़
ग़ज़ल
ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
तुम हमें सोचोगे इक दिन ख़ुद से बे-ज़ारी के दिन
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
तल्ख़ लहजा जिस की फ़ितरत है उसी नारी का बोझ
मैं उठाए फिर रहा हूँ ज़ीस्त बेचारी का बोझ