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ग़ज़ल
जी क्यूँ न भला उन की फिर भौं पे लगे अपना
इक वुसअत-ए-मशरब के है साथ ये वीराना
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वो फ़ाख़्ता थी जिसे गोलियों ने भून दिया
ये क़त्ल सेहन-ए-गुलिस्ताँ में जारेहाना हुआ
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
वो दोनों तो रब्त-ए-बाहमी से जुड़े हुए थे
मैं क्यूँ रक़ाबत के इस जहन्नम में भुन रहा हूँ
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
ऐ 'मुसहफ़ी' जल-भुन के हुआ ख़ाक में सारा
दिखलावेगी अब क्या तपिश-ए-दिल नहीं मालूम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वुजूद जलता तवा है कोई मैं उस तवे पर
'अदम की जौ हूँ सो जल रहा हूँ सो भुन रहा हूँ