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ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
बीता दीद उम्मीद का मौसम ख़ाक उड़ती है आँखों में
कब भेजोगे दर्द का बादल कब बरखा बरसाओगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बे-पिए हूँ कि अगर लुत्फ़ करो आख़िर-ए-शब
शीशा-ए-मय में ढले सुब्ह के आग़ाज़ का रंग
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
शम् ओ परवाना न महफ़िल में हों बाहम ज़िन्हार
शम्अ'-रू ने मुझे भेजे हैं ये परवाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
न हवस मुझे मय-ए-नाब की न तलब सबा-ओ-सहाब की
तिरी चश्म-ए-नाज़ की ख़ैर हो मुझे बे-पिए ही सुरूर है
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए
कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए