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ग़ज़ल
भीतर से ख़ालिस जज़्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
मौक़े तो हम तक भी आए ख़ूब कमा खा लेते हम
लेकिन एक ज़मीर था भीतर अल्लाह की निगरानी में
विलास पंडित मुसाफ़िर
ग़ज़ल
उस का होना या ना होना ख़ुद में उजागर होता है
गर वो है तो भीतर ही है वर्ना ब-ज़ाहिर कुछ भी नहीं
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे
इक मूरत को चाहे फिर का'बे को दैर करे मौला ख़ैर करे