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ग़ज़ल
न कोई दीवार-ओ-दर था कोई न हम-सफ़र हम-सुख़न था कोई
बिचारी का कोई घर कहाँ था कि कह दें हम अपने घर गई वो
सूफ़िया अनजुम ताज
ग़ज़ल
रात को जो भी ख़्वाब में देखा सुब्ह वही ता'बीर किया
अगले रोज़ भी जागना होगा नींद बिचारी बैठेगी
हस्सान अहमद आवान
ग़ज़ल
इंसानों के ख़ूँ के प्यासे और नहीं ख़ुद इंसाँ हैं
अक़्ल बिचारी देख के दुनिया हैराँ होती जाती है
अहमद शाहिद ख़ाँ
ग़ज़ल
कल कहाँ बिचारी बुलबुल और कहाँ बेचारा गुल
आज बुलबुल दीद कर ले बाग़ की नज़्ज़ारा गुल