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ग़ज़ल
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद
राही मासूम रज़ा
ग़ज़ल
रक़ाबत 'इल्म ओ 'इरफ़ाँ में ग़लत-बीनी है मिम्बर की
कि वो हल्लाज की सूली को समझा है रक़ीब अपना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
चराग़-ए-हक़ हैं तो ख़ामोश क्यूँ हैं वो 'रज़्मी'
बिना जले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं