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ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
बैरन रीत बड़ी दुनिया की आँख से जो भी टपका मोती
पलकों ही से उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा
मीराजी
ग़ज़ल
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
है अपनी किश्त-ए-वीराँ सरसब्ज़ इस यक़ीं से
आएँगे इस तरफ़ भी इक रोज़ अब्र-ओ-बाराँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुकम्मल किस तरह होगा तमाशा बर्क़-ओ-बाराँ का
तिरा हँसना ज़रूरी है मिरा रोना ज़रूरी है
शोएब बिन अज़ीज़
ग़ज़ल
मिरे बाहर फ़सीलें थीं गुबार-ए-ख़ाक-ओ-बाराँ की
मिली मुझ को तिरे ग़म की ख़बर आहिस्ता आहिस्ता