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ग़ज़ल
वो बिसात-ए-शेर-ओ-नग़्मा रतजगे वो चहचहे
फिर वही महफ़िल सजा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
कभी शेर-ओ-नग़्मा बन के कभी आँसुओं में ढल के
वो मुझे मिले तो लेकिन मिले सूरतें बदल के
ख़ुमार बाराबंकवी
ग़ज़ल
शराब-ओ-शे'र-ओ-नग़्मा के सिवा क्या चाहिए 'फ़ैज़ी'
बला से ज़िंदगी जाए मता-ए-राएगाँ हो कर
फ़ैज़ी निज़ाम पुरी
ग़ज़ल
ये शराब-ओ-शे'र-ओ-नग़्मा ये जवानी ये जमाल
‘उम्र-ए-फ़ानी को मता’-ए-राएगाँ कैसे कहें
बिर्ज लाल रअना
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
चराग़-ए-ज़िंदगी है या बिसात-ए-आतिश-ए-रफ़्ता
जला कर रौशनी दहलीज़-ए-जाँ पर सोचते रहना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
फ़न्न-ए-मौसीक़ी से वाबस्ता है अपनी शायरी
हम ग़ज़ल पढ़ते हैं ऐ 'नग़्मा' हुनर के साथ-साथ
नग़मा ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कर रहा हूँ कारोबार-ए-शे'र में अपने को ख़र्च
वर्ना ऐसी मद कोई घर के हिसाबों में न थी
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
जवानी सैल-ए-शेर-ओ-बादा-ए-नग़्मा सही लेकिन
ये तूफ़ान-ए-लताफ़त ख़ुद-बख़ुद मद्धम भी होता है