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ग़ज़ल
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
एक ऐसा शख़्स बनता जा रहा हूँ मैं 'मुनीर'
जिस ने ख़ुद पर बंद हुस्न ओ जाम ओ बादा कर लिया